Tuesday, March 17, 2015

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है (जिगर मुरादाबादी)

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है 
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है 

ये किसका तसव्वुर है ये किसका फ़साना है 
जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है 
[(तसव्वुर = ख़याल, विचार, याद), (फ़साना = विवरण, हाल), (अश्क = आँसू), (तस्बीह = माला)] 

हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है 
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है 

वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है 
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है 

क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है 
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है 

वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना 
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है 

(जमाल = बहुत सुन्दर रूप, सौंदर्य, ख़ूबसूरती) 

या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे 
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है 

अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में 
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है 

जो उनपे गुज़रती है किसने उसे जाना है 
अपनी ही मुसीबत है अपना ही फ़साना है 

आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं 
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है 

ऐ इश्क़-ए जुनूँ-पेशा हाँ इश्क़-ए जुनूँ-पेशा 
आज एक सितमगर को हँस-हँस के रुलाना है 

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 

दिल संग-ए-मलामत का हरचंद निशाना है 
दिल फिर भी मेरा दिल है दिल ही तो ज़माना है 

(संग-ए-मलामत = निंदा) 

आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन 
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है 

                                                                                     -जिगर मुरादाबादी


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